Kapitano Vikram Batra (09 September 1974 - 07 July 1999)estis oficiro de la Barata Armeo, kiu atingis valoron montrante senprecedencan valoron en la milito de Kargil . Li estis postmorte premiita la Param Vir Chakra, la plej alta honoro de galanterio. [1]
कैप्टन विक्रम बत्रा (09 सितम्बर 1974 - 07 जुलाई 1999) भारतीय सेना के एक अधिकारी थे जिन्होंने कारगिल युद्ध में अभूतपूर्व वीरता का परिचय देते हुए वीरगति प्राप्त की। उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च वीरता सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।[1]


Tiamaniere, kapitano Vikram Batra plenumis sian superan oferon konforme al la plej altaj tradicioj de la Barata Armeo antaŭ la malamiko, montrante tre elstarajn personajn valorojn kaj gvidadon de la plej alta ordo.
इस प्रकार कैप्टन विक्रम बत्रा ने शत्रु के सम्मुख अत्यन्त उतकृष्ट व्यक्तिगत वीरता तथा उच्चतम कोटि के नेतृत्व का प्रदर्शन करते हुए भारतीय सेना की सर्वोच्च परंपराओं के अनुरूप अपना सर्वोच्च बलिदान दिया।

Vidante la disciplinon de la armeo pro havi lernejon en la armea kantono kaj aŭdi la rakontojn pri patriotismo de la patro, patriotismo triumfis de la lernejo en Vikram. En la lernejo, Vikram ne nur estis la pinto en la kampo de edukado, sed li ankaŭ estis bonega ludanto en tabloteniso kaj li partoprenis kulturajn eventojn. Post studado ĝis du jaroj, Vikram translokiĝis al Chandigarh kaj komencis sian Licencon pri Scienco en DAV College, Chandigarh .
पालमपुर निवासी जी.एल. बत्रा और कमलकांता बत्रा के घर 9 सितंबर 1974 को दो बेटियों के बाद दो जुड़वां बच्चों का जन्म हुआ। माता कमलकांता की श्रीरामचरितमानस में गहरी श्रद्धा थी तो उन्होंने दोनों का नाम लव और कुश रखा। लव यानी विक्रम और कुश यानी विशाल। पहले डीएवी स्कूल, फिर सेंट्रल स्कूल पालमपुर में दाखिल करवाया गया। सेना छावनी में स्कूल होने से सेना के अनुशासन को देख और पिता से देश प्रेम की कहानियां सुनने पर विक्रम में स्कूल के समय से ही देश प्रेम प्रबल हो उठा। स्कूल में विक्रम शिक्षा के क्षेत्र में ही अव्वल नहीं थे, बल्कि टेबल टेनिस में अव्वल दर्जे के खिलाड़ी होने के साथ उनमें सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर भाग लेने का भी जज़्बा था। जमा दो तक की पढ़ाई करने के बाद विक्रम चंडीगढ़ चले गए और डीएवी कॉलेज, चंडीगढ़ में विज्ञान विषय में स्नातक की पढ़ाई शुरू कर दी। इस दौरान वह एनसीसी के सर्वश्रेष्ठ कैडेट चुने गए और उन्होंने गणतंत्र दिवस की परेड में भी भाग लिया। उन्होंने सेना में जाने का पूरा मन बना लिया और सीडीएस (संयुक्त रक्षा सेवा परीक्षा) की भी तैयारी शुरू कर दी। हालांकि विक्रम को इस दौरान हांगकांग में मर्चेन्ट नेवी में भी नौकरी मिल रही थी जिसे इनके द्वारा ठुकरा दिया गया।

Fine de trejnado en decembro 1997, li estis nomumita kiel leŭtenanto en la 13 Jammu kaj Kaŝmiraj Fusiloj de la Armeo ĉe Sopore, Jammu la 6an de decembro 1997. Li ankaŭ spertis plurajn trejnadojn kun Komando-Trejnado en 1999. La 1an de junio 1999, liaj trupoj estis senditaj al la Milito de Kargil.
विज्ञान विषय में स्नातक करने के बाद विक्रम का चयन सीडीएस के जरिए सेना में हो गया। जुलाई 1996 में उन्होंने भारतीय सैन्य अकादमी देहरादून में प्रवेश लिया। दिसंबर 1997 में प्रशिक्षण समाप्त होने पर उन्हें 6 दिसम्बर 1997 को जम्मू के सोपोर नामक स्थान पर सेना की 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति मिली। उन्होंने 1999 में कमांडो ट्रेनिंग के साथ कई प्रशिक्षण भी लिए। पहली जून 1999 को उनकी टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया। हम्प व राकी नाब स्थानों को जीतने के बाद विक्रम को कैप्टन बना दिया गया।

Post tio, la kontingento de kapitano Batra akiris la respondecon liberigi la plej gravan 5140-pinton de la Pak-Armeo ĝuste super la vojo Srinagar-Leh. Kapitano Batra vagis kun sia kompanio kaj moviĝis al ĉi tiu areo el la orienta direkto kaj atingis la gamon de sia atako sen iu ajn malamiko enportanta. Kapitano Batra reorganizis sian taĉmenton kaj instigis ilin ataki la celojn de la malamiko rekte.
इसके बाद श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे महत्त्वपूर्ण 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त करवाने की ज़िम्मेदारी कैप्टन बत्रा की टुकड़ी को मिली। कैप्टन बत्रा अपनी कंपनी के साथ घूमकर पूर्व दिशा की ओर से इस क्षेत्र की तरफ बडे़ और बिना शत्रु को भनक लगे हुए उसकी मारक दूरी के भीतर तक पहुंच गए। कैप्टेन बत्रा ने अपने दस्ते को पुर्नगठित किया और उन्हें दुश्मन के ठिकानों पर सीधे आक्रमण के लिए प्रेरित किया। सबसे आगे रहकर दस्ते का नेतृत्व करते हुए उन्होनें बड़ी निडरता से शत्रु पर धावा बोल दिया और आमने-सामने के गुतथ्मगुत्था लड़ाई मे उनमें से चार को मार डाला। बेहद दुर्गम क्षेत्र होने के बावजूद विक्रम बत्रा ने अपने साथियों के साथ 20 जून 1999 को सुबह तीन बजकर 30 मिनट पर इस चोटी को अपने कब्ज़े में ले लिया।कैप्टन विक्रम बत्रा ने जब इस चोटी से रेडियो के जरिए अपना विजय उद्घोष ‘यह दिल मांगे मोर’ कहा तो सेना ही नहीं बल्कि पूरे भारत में उनका नाम छा गया। इसी दौरान विक्रम के कोड नाम शेरशाह के साथ ही उन्हें ‘कारगिल का शेर’ की भी संज्ञा दे दी गई। अगले दिन चोटी 5140 में भारतीय झंडे के साथ विक्रम बत्रा और उनकी टीम का फोटो मीडिया में आ गयी।

La arĥeologia muzeo de Sanĉio troviĝas proksime de la arĥeologia loko de Sanĉio en Madja-Pradeŝo, Barato . Ĝi enhavas diversajn restaĵojn kiuj estis trovitaj en proksima budhana komplekso.[1][2] La muzeo, kiun siaj vididndaĵoj, atestas la riĉan religian kaj arĥitekturan heredaĵon de Barato.
साँची पुरातत्व संग्रहालय साँची का पुरातात्विक स्थल के पास एक संग्रहालय है। इसमें विभिन्न अवशेष हैं जो पास के बौद्ध परिसर में पाए गए थे।.[1][2] एक महत्वपूर्ण पर्यटक आकर्षण के रूप में सांची संग्रहालय भारतीय समृद्ध धार्मिक और स्थापत्य विरासत का साक्षी है। कई दुर्लभ और प्राचीन वस्तुओं का प्रदर्शन इस संग्रहालय का दौरा करने योग्य बनाता है।

La arkeologia muzeo estis starigita en la jaro 1919 fare de la S-ro John Marshall; poste ĝi konvertiĝis en la hodiaŭa muzeo de Sanĉio. La Arĥeologia Servo de Hindio estas la nuntempa posedanto de la muzeo. Ĝi malfermiĝas por la publika spektantaro ekde 9 atm. ĝis 5 ptm (loka horo).
वर्ष 1919 में सर जॉन मार्शल द्वारा एक पुरातात्विक संग्रहालय रूप में विकसित किया गया था जिसे बाद में सांची संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया गया। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण वर्तमान में इस संग्रहालय का मालिक है। सुबह 9 बजे से शाम को 5 बजे तक सार्वजनिक देखने के लिए इसे खुला रहता है। पर्यटननों को प्रवेश के लिए शुल्क देना होता है। भारतीय नागरिकों के लिए 30 रूपये तथा विदेशी पर्यटकों के लिए 500 रूपये का शुल्क है।

Vidindaĵoj
सांची संग्रहालय का विवरण

Bildgalerio ĉe la muzeo.
साँची संग्रहालय की गैलरी

La muzeo kolktadas grandan kvanton da tre antikvaj ŝtonskulptaĵoj de Hindi, de la tria, dua kaj unua jarcentoj a.K.E.. La ĉiuj vidindaĵoj estis kolektitaj en Sanĉio mem. Oni povas vidi en la muzeo — inter la aliaj — plurjarcentajn kestetojn, malsamajn ilojn, kaj kelkajn metalobjektojn uzitaj fare de monaĥoj.
भारत में तीसरी, दूसरी और पहली शताब्दी ईसा पूर्व काल की सबसे पुरानी पत्थर की मूर्तियों की एक बड़ी संख्या साँची संग्रहालय में एकत्र की गई है। उन सभी को सांची से ही इकट्ठा किया गया है। संग्रहालय में कई सदियों पुरानी कस्केट और बर्तनों को देखा जा सकता है। भिक्षुओं द्वारा उपयोग की जाने वाली कुछ धातु वस्तुओं को भी संग्रहालय में रखा गया है। टोरना या सजावटी गेटवे के हिस्सों संग्रहालय में संरक्षित हैं। बाद में प्रसिद्ध अशोक शेर स्तम्भ जिसे भारत के राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में अपनाया गया था, संग्रहालय में भी रखा है।

Referencoj
सन्दर्भ